Saturday, September 26, 2009

विचारों की उथल-पुथल और जिन्दगी की मंजिल

अभी थोड़ा समय मिला तो मन में विचार आया की इंसान खाली समय में क्या सोचता रहता है? मैं तो जब भी वक्त मिलता है, अतीत में चला जाता हूँ। हालाँकि कहते हैं अतीत में झाँकने से कुछ नही मिलता। लेकिन ये भी सुना है कि पुराने दौर को याद रखना चाहिए। क्योंकि वो आपके जीवन को दिशा देने में मदद करता है। बताता है कि जिन्दगी की हकीक़त क्या थी? खैर कई बार विचारों के रथ पर सवार हुआ तो पता नही किस दिशा में पहुँच जाता हूँ। या यूँ कहूँ ख्याल क्या होता है और मन में क्या आ जाता है। सोच रहा था कॉलेज के दिनों के बारे में और उन हरकतों के बारे में जिनका ख्याल आते ही चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है और अचानक उस दौर के बारे में जब जीवन कि दिशा यानि राह तय करने का समय आया तो अजीब सी कशमकश चलने लगी थी। लेकिन अचानक से जिन्दगी को ख़ुद बा ख़ुद दिशा मिल गई। फ़िर एक मुश्किल भरा दौर आया। रास्ता ही धुंधला सा नजर आने लगा था। लेकिन अपनों ने तब भी संभाल लिया। मगर जीवन है और सब कुछ तो कभी भी बेहतर नही हो पाता। जीवन में एक मोड़ आया और इस बार फैंसला करना कठिन लगने लगा। क्योंकि दिल और दिमाग ही नही दिल भी दो दिशाओं में चल रहा था। दिल और दिमाग कभी कभी एक साथ नही चलते ये तो सुना था। लेकिन यहाँ तो मामला दिल की दो दिशाओं का था। दिल ही दो अलग दिशाओं की और चलना चाह रहा था और ऐसा तो सम्भव नही था। लेकिन इस बार भी फैंसला कर लिया। कठिन था, मगर इरादा बना लिया कि फैंसले पर अटल रहना है। कई साल यही कशमकश चलती रही और इस बार भी किस्मत ने फ़िर से मेरा ही साथ दिया। लग रहा है सब ठीक है। जीवन की एक और जंग में राह तय हो गई है। लेकिन अभी भी ख्याल आता है की क्या मैं उन उम्मीदों पर खरा उतार पाउँगा जो मुझसे हैं? क्या इस बार भी जीवन के संघर्ष में किस्मत मेरा ही साथ देगी। हमेशा की तरह? लेकिन इरादा पक्का है, मंजिल तय की है तो उसी की राह पर चलना भी है। क्योंकि इस बार तो किस्मत ही मेरी हमसफ़र है।

सावधान सरकार खेल (राष्ट्रमंडल) में व्यस्त है.

देश की राजधाने में जनता पीने के पानी के लिए तरस रही है। लोगो को इस मौसम में भी बिजली की किल्लत झेलनी पड़ रही है। सड़को की हालत ऐसी है कि प्रेगनेन्ट महिला को इनसे होकर अस्पताल ले जाने निकलें तो डिलीवरी का खर्चा बच जाए। शहर में यातायात जाम स्थायी समस्या बन गया है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पूरी तरह लचर हो चुका है। बदमाश बेखौफ होकर अपने काम को अंजाम दे रहे हैं।
सरकार कहती है कि दिल्ली में हरयाली बढ़ रही है, लेकिन गर्मी और बढ़ते हुए तापमान से जूझ रहे इंसान को सड़क किनारे सस्ताने के लिए भी छाँव तक नही मिल पाती। अब जनता है कि हर बात के लिए सरकार और अफसरों को जिमेद्दार ठहरा रही है। कहती है समस्या दूर करने में सरकार ध्यान नही दे रही। अब जनता तो जनता है। कुछ भी कह देती है। नही जानती कि सरकार को बहुत काम हैं। बेचारी सरकार के मंत्री और अफसर अपने एसी कमरों में होने वाली मीटिंगों में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बाहर की हकीक़त देख ही नही पाते। अब भला जनता क्या जाने राजकाज की बातें?
जानती नही है कि सरकार कितनी मेहनत करती है? अगले साल दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल होने वालें हैं। विदेशों से बड़ी संख्या में लोग इसमे हिस्सा लेंगे। इसके लिए तैयारियां करनी हैं। जनता तो सरकार की अपनी है। बिना बिजली और पानी के भी रह सकती है। यातायात जाम और गड्ढों वाली सड़को से गुजरने की आदि हो चुकी है। लेकिन बाहर से आने वालों का ख्याल रखना ज्यादा जरुरी है। जनता को ये बात समझनी चाहिए।
इसलिए इस देश, शहर और सरकार की अपनी बेचारी जनता को चेतावनी दी जाती है कि बिजली, पानी, सड़क, यातायात जाम, अपराध, पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम या किसी और समस्या को उठाने की हिमाकत न करे। क्योंकि इससे सरकार का ध्यान भंग हो सकता है और सरकार अपने सबसे महत्वपूर्ण काम यानि खेल करने....ओह....माफ़ करें खेलों कि तैयारी में व्यस्त है।

Thursday, September 24, 2009

किसके लिया और किसके साथ

दिल्ली के अख़बारों में खबरें छप रही हैं कि सीपी साहब के खास डीसीपी साहब ने अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी निकलने के लिए सफदरजंग अस्पताल के एम्एस के ख़िलाफ़ झूठा मुकदमा दर्ज करा दिया। एमएस साहब का कसूर ये था कि उन्होंने डीसीपी साहब के रिश्तेदारको मेडिकल कोर्स में दाखिला नही दिया था। अब शहर में रहना है और डीसीपी साहब के रिश्तेदार को तवज्जो नही मिले, ये तो पुलिस की साख पर बट्टा लगाने वाला काम है न? एमएस साहब ने पुलिस की साख पर बट्टा लगाया था, तो परिणाम भी भुगतना ही पड़ेगा न। कहा तो यह भी जा रहा है कि डीसीपी साहब ने हाल ही में अस्पताल से एचआईवी संक्रमण वाले खून के मामले का खुलासा भी किया था। ये बात और है कि अस्पताल के रिकॉर्ड में वो खून नष्ट किया जा चुका है। लेकिन डीसीपी साहब ने मीडिया में ये भी कह दिया कि पुलिस जांच कर रही है कि ये खून कहीं लोगो को तो नही चढाया गया है? साहब ने तो केवल आशंका ही व्यक्त की और अस्पताल में खून चढवा चुके लोगो के दिलों की धड़कने तेज हो गई हैं। बेचारों को क्या पता था कि अस्पताल में खून चढ़वाने के बाद डीसीपी और डॉक्टर साहब की लडाई में ईलाज के बाद ये दिन भी देखना पड़ेगा। धन्य है दिल्ली की महान पुलिस और उसके डीसीपी साहब। बदमाश खौफ नही खाते तो क्या हुआ? कम से कम आम लोगों को तो पुलिस से डरना ही चाहिए।

Wednesday, September 23, 2009

खजूरी हादसा और सरकार. ये दिल्ली है मेरे यार

देश की राजधानी दिल्ली के स्कूल में हादसा हो गयापांच नन्ही बच्चियों की जान चली गईस्कूल की बच्चियों का आरोप थाकि हादसे का कारण लड़कियों के साथ कि गई छेड़छाड़ थीमुख्यमंत्री से लेकर अन्य नेता तक हाल जानने पहुंचेमृत बच्चियोंके घरवालों को मुआवजे का एलान कर दिया गयासरकार ने जांच कमेटी बैठा दीलेकिन रिपोर्ट आने सा पहले ही डीसीपीएस एस यादव ने कह दिया कि हादसा छेड़छाड़ के कारण नही हुआ थाअब दिल्ली सरकार के राजस्व उपायुक्त टी सी नख नेभी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि हादसा छेड़छाड़ के कारण नही हुआ हैहादसे का कारण स्कूल में छोटी सी जगह पर ज्यादातादाद में बच्चों को ठूंसने के कारण हुआ थाऐसा लगता है रिपोर्ट के नाम पर मृत बच्चों के साथ मजाक किया गया हैशायदउपायुक्त श्री नख साहब दिल्ली के सरकारी स्कूलों की हालत से वाकिफ नही हैंआखिर होंगे भी कैसे एसी कमरे और गाड़ी सेनिकलने का मौका जो नही मिलता बेचारों कोदिल्ली के स्कूलों की हकीक़त देख लें तो शायद मालूम हो जाएगा कि बाछेंकिन मुश्किल हालात में पढ़ रहे हैंआज भी ज्यादातर स्कूलों में क्षमता से ज्यादा बच्चों को ठूंसकर रखा जाता हैस्कूलों किइमारतें खतरनाक हालत में हैंस्कूलों में पीने का पानी नही हैटॉयलेट कि सुविधा नही हैस्कूलों के बहार छुट्टी के समय आवारा लड़कों का हुजूम लगा रहता है और पुलिस तथा प्रशासन इन पर अंकुश लगाने में नाकाम साबित हो रहा है। लेकिन सरकार और पुलिस को इससे कोई सरोकार नही है। भले ही पांच कि जगह पचास मासूम लड़कियां क्यों न अपनी जान दे देन। कम से कम १.७ करोड़ कि आबादी में तो इतनी जानें सरकार के लिए कोई मतलब नही रखती।

कौन कहता है सड़क पर भीख मांगते हैं भिखारी

लोग कहते हैं राजधानी की सड़कों पर भीख मांगने वाले लोग शहरी की छवि पर बट्टा लगा रहे हैं! लेकिन हम पूछते हैं जब सरकार और पुलिस को भिखारी नजर नहीं आ रहे, तो आपको भला भिखारी कहां से नजर आ गए! अरे जनाब! आप जानते भी हैं कि भिखारी किसे कहते हैं? चलिए हम आपको बता देते हैं! भिखारी वास्तव में वह लोग होते हैं जो आर्थिक विवशता व अन्य परेशानी के कारण लोगों के सामने याचक बनकर खाने व अन्य मदद की गुहार लगाते हैं। और अपनी दिल्ली में तो ऐसे लोगों की तलाश करने पर कुछ नहीं मिलने वाला।
हैरान होने की आवश्यकता नहीं है। यहां आपको भिखारी नहीं, बल्कि ऐसे लोग ही नजर आएंगे जो लाल बत्ती पर रूकी हुई आपकी कार के शीशे पर हाथ मारकर पैसे मांगते हैं। आप भले ही उन्हें इंकार कर दें या कार से दूर होने के लिए कहें। मगर क्या मजाल की वह अपने अधिकार के लिए ना लड़े! जब तक बत्ती लाल रहेगी, कार के शीशे को थपथपाते उनके हाथ और कार से चेहरा सटाकर भीतर झांकती उनकी निगाहें हट नहीं सकती। आपको बुरा लगता है तो लगता रहे! उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं है। वह तो अपने कार्यक्षेत्र में अपना काम कर रहे हैं। अब आपको नहीं पसंद आया तो न सही। लेकिन उन्हें भिखारी कहने का अधिकार आपको नहीं है!
सड़क और चौराहों पर भीख मांगने वाले लोग कोई मामूली आदमी नहीं है। वह इस काम के लिए बाकायदा पुलिस और समाज कल्याण विभाग को अपनी कमाई में हिस्सा देते हैं। वह ऐसे प्रोफेसनल व्यापारी लोग हैं जो बाकायदा एक क्षेत्र विशेष में अपने काम को अंजाम देते हैं। जहां पर महिला भिखारी बीमार नजर आने वाले बच्चे को किराए पर लाकर उसके नाम पर आपसे मदद मांगती हैं। जहां फटेहाल और बीमार नजर आ रहे मासूम बच्चों की कमाई में से भी बाकायदा कुछ लोगों को हिस्सा जाता है।
ऐसे में यदि कोई संस्था यह कहे कि भीख मांगना अपराध नहीं होना चाहिए तो भला क्या गलत कह रही है? लोग बेचारे अपनी नशे की आदत से मजबूर होकर आपसे पैसा मांगते हैं। हट्टे-कट्टे हैं, मगर मेहनत करने के बजाए भीख मांगकर पेट भरने में विश्वास रखते हैं। पुरूष, कलाकारों की तरह महिला की वेशभूषा में कला दिखाकर पैसे मांगते हैं और नहीं देने पर अधिकार के साथ आपको अपशब्दों से भी नवाजते हैं। फिर ऐसे लोग भला भिखारी कैसे हो सकते हैं। वह तो यह काम उतने ही अधिकार से करते हैं, जितने अधिकार के साथ आप अपना काम करते हैं। भीख मांगना तो उनका मौलिक अधिकार है।

Monday, September 21, 2009

सच का सामना आएं नेताजी तो क्या हो

चर्चित और विवादित टीवी कार्यक्रम सच का सामना में इस बार एक नेताजी मंच पर बैठे हुए थे। एंकर ने पहला सवाल दागा कि क्या आपको टिकट ईमानदारी और मेहनत के कारण मिला था। पहले ही सवाल को सुन ठंडी हवा फेंक रहे एसी के सामने बैठे नेताजी के माथे पर पसीना नजर आने लगा। नेताजी शायद यह सोच रहे थे कि जवाब देते ही उनका तिया-पांचा होना तय हैं। सच बोला तो जनता जूते मारेगी और जवाब हां में दिया तो पहली ही बॉल पर बोल्ड होना तय हैं।

दर्शकों में नेताजी के कुछ राजदार भी बैठ हुए थे। उनमें नेताजी के ऐसे चव्वे भी थे जिन्हें नेताजी विपरित परिस्थितियों से निपटने के लिए खास मित्र बताकर साथ लाए थे। उनमें से एक चव्वा सामने लगा बजर बजाना ही चाहता था कि नेताजी ने इशारे से इंकार कर दिया। चव्वा परेशान यह नेताजी को क्या हो गया है? खुद ही अपनी फजीहत क्यों कराना चाह रहे हैं? मगर वह नेताजी की राजनीति और हार्ट-अटैक से बहुत ज्यादा वाकिफ नहीं था। वह सोच ही रहा था कि नेताजी ने अचानक से सीने पर हाथ रखा और नेताजी को हाट-अटैक हो गया। बेचारा एंकर भी परेशान। सोचने लगा कि नेताजी के हार्ट-अटैक का कारण उसे मान लिया गया तो घर और स्टूडियो पर पथराव और धरने-प्रदर्शन का दौर शुरू हो जाए।

अभी वह सोच ही रहा था कि डायरेक्टर ने मोबाइल पर फोन कर दिया। बोला कहीं नेताजी भगवान को प्यारे हो गए और मौत के कारणों की जांच के लिए गठित कमेटी के सामने पॉलीग्राफ मशीन ने हार्ट-अटैक का सही कारण बता दिया तो, तुम्हारा तो जो होना है होगा, मैं तो मुफ्त में ही मारा जाऊंगा। नेताजी भी इस पूरे प्रकरण में एक आंख खोलकर नजारा देख और सुन-समझ रहे थे। अब चूंकि पसीना एंकर के माथे पर रहा था तो बेचारे नेताजी को तरस गया और तेज चिल्लाते हुए बोले मुझे रेस्ट रूम में ले चलो।

पहले से ही अपनी हालत पर घबराया एंकर उन्हें कमरे में ले गया और जैसे ही नेताजी को बिस्तर पर लिटाया, उन्हांेने कहा बाकी लोगों को बाहर भेज दो और केवल तुम रूक जाओ। एंकर परेशान कि उसके साथ यह क्या होने जा रहा है। मगर पहले ही घबराया था तो नेताजी की बात मानने के अलावा कोई चारा नजर नहीं आया। जैसे ही उसने सभी लोगों को बाहर निकालकर दरवाजा बंद किया, नेताजी मुस्कराते हुए उठकर चहलकदमी करने लगे। बोले बेटा तुम्हारी उम्र कितनी है? हमें ही फंसाना चाह रहा था? हम इतने घोटाले करते हैं और लाखों लोगों को चुनाव के कुछ ही दिनों में बेवकूफ बनाने का हुनर जानते हैं और तुम हमारे ही उस्ताद बनने के चक्कर में थे। अभी वह कुछ बोल ही पाता कि नेताजी फिर से बोलने लगे, कि हार्ट-अटैक आम इंसान के लिए ही परेशानी का कारण होता है। हमें तो यह जब भी आता है, मदद ही करता है। और हां यह भी बता दे रहे हैं कि हममें हार्ट ही नहीं है तो अटैक कैसे पड़ेगा। एंकर को सब समझ में गया और उसने कान पकड़कर तौबा कर ली कि भविष्य में किसी कार्यक्रम में किसी नेता को नहीं बुलाएगा। दरअसल नेताजी की जगह एंकर खुद ही 'सच का सामना" कर चुका था।

Monday, February 16, 2009

आत्महत्या समाधान या शुरुआत......

आत्महत्या.... सुनने में कुछ अहसास भले ही न हो, लेकिन जब ख़ुद या किसी अपने के परिवार का मामला हो तो अहसास का अंदाज ख़ुद बा ख़ुद हो जाता है। लेकिन ये तो उनके लिए है जिनके अपनों ने ये कदम उठाया हो। मैं बात करना चाहता हूँ उनकी जो केवन न्यूज़ या कहीं और से ऐसी जानकारी लेते हैं। चाहता तो नही पर विवश हूँ सोचने के लिए उन बुजदिलों के बारे में जो ये कदम उठाते हैं। बात अगर तह में जाकर करें तो समझने में आसानी होगी।
मां बाप यानि इस धरती पर ऐसे लोग जो चाहते हैं उनका बच्चा इस जीवन में वहां तक जाए जहाँ वो नही जा पायें हैं। उनकी अपनी पहचान अपने बच्चे के नाम से हो। विषय का एक पहलु ये भी हैं कि वो किस तरह अपनी औलाद को पालते हैं। ख़ुद भूखे रहकर बच्चों के लिए बेहतर खाना लातेहैं। ख़ुद कपड़े नही सिलाते पर बच्चों के लिए महंगे कपड़े लाते हैं। कर्जा लेकर उसे पढाते हैं। क्या इसलिए कि औलाद बुढापे का सहारा बनने के बजाए एक दिन फंदा लगाकर फंसी पर झूलती मिले ? क्या बच्चो की कोई ड्यूटी नहीं हैं ? क्या उनका फर्ज नही है कि वो माँ बाप की तरह हर मुसीबत से लड़ें ? बुजुर्ग हो रहे माँ बाप कि सेवा के लिए अपना जीवन लगा दें ? जैसे उन्होंने बचपन में हर संघर्ष में बच्चो के लिए त्याग किया, उस तरह मुसीबत उठाकर माँ बाप के लिए खुश रहकर सेवा भावः से काम करें ?
लेकिन नही। माँ बाप की मेहनत और त्याग से दिए गए सबक को सीखना तो अपमान है। एक समस्या आई नही कि आत्महत्या का फैंसला कर लिया। एक नोट भी लिख दिया कि मैं अपने घरवालों से बहुत प्यार करता हूँ। सभी ने मेरे लिए बहुत कुछ किया हैं। मैं उन्हें खुशी नही दे पाया। मुझे अफ़सोस रहेगा। मेरी इच्छा है मेरे शरीर के अंगो को दान कर दिया जाए।
क्या केवल इतना लिखने से समाधान हो जाता है ? क्या कभी ये सोचा है कि बूढे हो रहे माँ बाप का सहारा कौन बनेगा ? जब उन्हें जवान बच्चे कीजरुरत है तो कौन जिम्मेदारी संभालेगा ? बूढे हो रहे बाप को कौन सहारा देगा ? कौन बूढी मां के आँचल में सिर रखकर उसे प्यार का वो अहसास दिलाएगा जो उसके मन कि गहराइयों को छू जाए ?
इस देश के नौजवानों को सोचना होगा कि उनकी जिम्मेदारी क्या है ? आत्महत्या समस्या का अंत है या बुजदिल इंसान के कदम के बाद एक परिवार के सामने आने वाले संकटों की शुरुआत ? इस देश में शायद पहले ऐसा नही होता था? यदि ये आधुनिकता कि देन है तो शायद कोई माँ बाप नही चाहेगा कि उसकी औलाद इतना पढ़े कि ऐसे फैसले लेने लायक हो जाए...

Wednesday, February 11, 2009

भला कैसे अलग है भाजपा औरों से....

प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और अनुशासन का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेता अभी तक दिल्ली विधानसभा चुनाव की हार से उबर नही पा रहे हैं। कभी किसी नेता को दोषी बताया जाता है तो कभी कहा जाता है कि युवाओं ने पार्टी का साथ नही दिया। ऐसा तब हो रहा है जब पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी कह चुके हैं कि चुनाव में टिकट वितरण की खामी रही और इसीलिए पार्टी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। एक महीने पहले पार्टी नेतृत्व बदला तो गहन मंथन के स्थान पर हार का नया ही कारण बता दिया गया। प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश कोहली कह रहे हैं कि दिल्ली में दस लाख फर्जी वोटर हैं और उन्होंने पार्टी को हरवा दिया। शहर में कुल वोटरों कि संख्या एक करोड़ छ लाख है। हकीकत में दस लाख फर्जी वोटर हैं तो दिल्ली में हर दसवां आदमी फर्जी है।
पार्टी को चाहिए था कि मंथन करती और हार के सही कारणों को स्वीकार किया जाता। क्योंकि हार को स्वीकार करने में भी बड़प्पन ही नजर आता। कहते हैं जख्म कुरेदने से नासूर बन जाता है। मगर गुटबाजी में जुटे पार्टी नेता इस और ध्यान नही दे रहे। समस्या को नासूर बनाने में जुटे हैं। नही विचार कर रहे कि जमीन से ताल्लुक रखने वाले कार्यकर्ता अब पहले जैसे क्यों नही रहें?
रहे भी क्यों? सत्ता मिलते ही उसकी अपनी पार्टी के नेताओं का मिजाज जो बदल जाता है। काम होते नही और सम्मान भी नही मिलता। जब अफसरों से ही काम करना है तो दूसरी पार्टी के सत्ता में होने पर भी कराया जा सकता है। फ़िर मेहनत करने कि क्या जरुरत है?
अब सवाल ये है कि पार्टी क्यों बूथ लेवल कार्यकर्ता को सम्मान नही देती? क्यों सही लोगो को टिकट नही दिया जाता? क्यों हारने वालों पर दांव लगाया जाता है? क्यों बड़े नेता अपने खास और सेवा करने वालों कमजोर लोगों को टिकट देने के लिए पैरवी करते हैं? जब ऐसा होता रहेगा तो क्या फर्क रह जाता है पार्टी में, जो उसे औरों से अलग कर दे।

Saturday, February 7, 2009

इस देश में रिश्तों पर भारी रहती है राजनीति

जिस देश में रिश्तो और संबंधो को हर बात से महत्तवपूर्ण आंका जाता था वहां अब इनका आधार खत्म होता जा रहा है। कारण भौतिकतावाद भी है और बढ़ती महत्त्वाकांक्षा भी। कारण चाहे कुछ भी रहे, लेकिन चोट तो रिश्तो को ही लग रही है। पिछले दिनों दिल्ली में चुनाव हुए। एक उम्मीदवार की आक्समिक मृत्यु हो गई। समाज और मानसिकता पर हावी राजनीति का दबाव मानें या खत्म होती रिश्तों की अहमियत। फायदे और नुकसान का आंकलन कर उम्मीदवार की पार्टी ने उनकी पत्नी को मैदान में उतार दिया। यहाँ तक भी सब ठीक था, लेकिन देखकर झटका लगा कि कुछ दिन पूर्व मृत्यु को प्राप्त नेताजी की पत्नी ढोल की थाप के साथ लोगो से वोट मांग रही थी।
दूसरी घटना भी कुछ दिन पुरानी है। बीमारी के कारण मृत्यु के शिकार हुए एक लोकप्रिय नेता जी की चर्चा होते ही, लोग सम्मान से उनका नाम लेते हैं। लेकिन राजनीतिक जरुरत मानें या रिश्तों का कम होता सम्मान, यहाँ भी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा ने रिश्तों को हल्का कर दिया। नेताजी का बेटा अपने पिता की असली विरासत सँभालने के स्थान पर उनकी राजनीतिक विरासत पर काबिज होना चाहता है। उनकी अन्तिम क्रिया के बाद की हर रस्म में राजनीतिक ताकत दिखाने की कोशिश की गई।
तीसरा मामला है हरदिल अजीज और विरोधियों में भी लोकप्रिय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ख़राब हुए स्वास्थ का। जिन्दगी और मौत के संघर्ष से जूझ रहे इस महान नेता के अनुयायी उनके बेहतर स्वास्थ्य की कामना में हवन और यज्ञ करा रहे हैं। लेकिन हवन आदि खत्म होने से पहले पहुँच जाते हैं, समाचार पत्रों के दफ्तर में फोटो के साथ। ताकि अगले दिन अख़बार में छपी फोटो और ख़बर के साथ, सभी को बता सकें कि कितने समर्पित हैं देश और अपनी पार्टी के लोकप्रिय नायक के प्रति।

Tuesday, February 3, 2009

..............धन्य हैं मुख्य सूचना आयुक्त साहब

एक पुरानी कहावत है कि शीशे के घरों में रहने वाले लोग दूसरों पर पत्थर नहीं फैंकते। लेकिन मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह शायद इससे इत्तेफाक नहीं रखते। बात करते हैं पारदर्शिता, ईमानदारी और ऐसे माहौल की, जिसमे सरकार या प्रशासन से जुड़े हर शख्स और उसकी अर्जित संपत्ति के बारे में किसी को भी पूरी जानकारी मिल सके। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने और केन्द्र सरकार के मंत्रियों की संपत्ति की जानकारी मांगने का मामला सामने आया तो केंद्रीय सूचना आयोग के रुख ने देश की जनता को एक सकारात्मक संदेश दिया। एक अपील में आयोग की तीन सदस्यीय बेंच ने फ़ैसला दिया की सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए। फ़ैसला देने वालों में हबीबुल्लाह साहब भी शामिल थे। यही बात सूचना आयोग के आयुक्तों की संपत्ति के बारे में उठी तो, सूचना आयोग में आयुक्त श्रीमान शैलेश गाँधी इस पक्ष में थे कि आयुक्तों की संपत्ति की जानकारी वेब साईट पर डाल दी जाए। लेकिन हबीबुल्लाह साहब जानकारी देने से कतराने वाले अफसरों और जनता से जानकारी छिपाने का भरसक प्रयास करने वाली सरकार की भाषा बोलनजर आए। उनका कहना था, जब देश का कोई भी आयोग अपने आयुक्तों की संपत्ति का ब्यौरा नहीं दे रहा है तो हम भी उन्ही की राह पर चलेंगे। ये मौका था सूचना छिपाने वाले लोगो के सामने एक उदहारण पेश करने का। लेकिन इस बेहतर मौके पर उन्हें अपनी पुरानी नौकरशाही की भाषा याद आ गई। धन्य हैं हमारे देश का सूचना आयोग और उसके मुख्य सूचना आयुक्त।

Friday, January 30, 2009

ऐसा ही है देश मेरा

इस देश में जहाँ हर बात और हर काम छिपाकर करना सरकार और अफसरों की आदत बन गई है, एक उम्मीद की किरण नज़र आई। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005। कानून बना तो लोगो को लगा की उन्हें भी हकीकत की जानकारी मिल जाया करेगी। वह भूल गई की मेरे देश में सोचना और होना दो अलग अलग बातें हैं। जो होता है उसके पीछे सोच नही होती और जो सोचा जाता है वो होता नही है। इसीलिये तो ये महान लोकतंत्र है। खैर हम बात कर रहे थे Right to information act की। 12 October 2005 के इस Act में आज भी जनता को सही सूचना समय से नही दी जाती। आम इंसान को अभी भी इसका फायदा नहीं मिल रहा है। अपने फैसले छिपाकर रखने वाले Officers नहीं चाहते की जनता हर हकीकत जान सके। यही वजह है, उन्होंने इस कानून में सूचना लेने की चाहत रखने वालों को चक्कर लगवाने शुरू कर दिए। दिल्ली पुलिस में डीसीपी रहे रोबिन हिब्बू, अनिल शुक्ला, अजय चौधरी जैसे कई ऑफिसर रहे हैं, जो सूचना चाहने वालों से पैसे मांगने लगे। केंद्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह साहब की बात करें तो वो फरमाते हैं, कानून ज्यादा पुराना नही है, अभी ऑफिसर इसे समझ नही पाए हैं, इसलिए उन पर जुरमाना नही लगाया जाता। जिस देश में राजपत्रित ऑफिसर लेबल के ऑफिसर दो या तीन साल पुराना कानून नही समझ सकते, ऐसे लोग देश का कानून और शासन कैसे चलाते होंगे। क्या कल कोई अदालत किसी अपराधी पर इसलिए मकोका नही लगायेगी की उस अपराधी को कानून की जानकारी नही थी।
अब तो बस यही कहा जा सकता है, ये देश है मेरा।

Thursday, January 29, 2009

छोड़ दो ख्वाब देखने की आदत

ये देश मेरा, यानि मेरा हिंदुस्तान। नाम महान है। देश के लोग महान है। देश का सिस्टम महान है। बस महान नही है तो वो लोग जो नेताओं और अफसरशाही से महान होने का सपना देखते हैं। अब कौन समझाए शराफत, कानून और सच की बातों का कोई मतलब नही होता। ये वो ख्वाब हैं, जिन्हें देखना लोगो की आदत बन गई है। भला इस महान लोकतंत्र में ऐसे ख्वाब देखने की इजाजत कैसे दी जा सकती है। ये तो अपराध है, पूरे समाज और सिस्टम के खिलाफ। बताओ नेताओं पर निगरानी की बात और साथ में अफसरों से भी उम्मीद? ऐसा तो नही चलेगा। जिस देश में कभी पंचों को परमेश्वर मन जाता था और पंच भी सुचिता बरतते हुए अपने कर्म और जीवन में सभी कुछ आइने की तरफ साफ रखते थे। उस देश में आज न्याय करने वाले ही अपने आपको छिपाकर रखना चाहते हैं, वहां मर्यादा की बात करते हुए सपने देखने वालों के लिए कोई जगह नही है। महान देश में ऐसे लोगो की कोई जरुरत नही है।