Monday, February 16, 2009

आत्महत्या समाधान या शुरुआत......

आत्महत्या.... सुनने में कुछ अहसास भले ही न हो, लेकिन जब ख़ुद या किसी अपने के परिवार का मामला हो तो अहसास का अंदाज ख़ुद बा ख़ुद हो जाता है। लेकिन ये तो उनके लिए है जिनके अपनों ने ये कदम उठाया हो। मैं बात करना चाहता हूँ उनकी जो केवन न्यूज़ या कहीं और से ऐसी जानकारी लेते हैं। चाहता तो नही पर विवश हूँ सोचने के लिए उन बुजदिलों के बारे में जो ये कदम उठाते हैं। बात अगर तह में जाकर करें तो समझने में आसानी होगी।
मां बाप यानि इस धरती पर ऐसे लोग जो चाहते हैं उनका बच्चा इस जीवन में वहां तक जाए जहाँ वो नही जा पायें हैं। उनकी अपनी पहचान अपने बच्चे के नाम से हो। विषय का एक पहलु ये भी हैं कि वो किस तरह अपनी औलाद को पालते हैं। ख़ुद भूखे रहकर बच्चों के लिए बेहतर खाना लातेहैं। ख़ुद कपड़े नही सिलाते पर बच्चों के लिए महंगे कपड़े लाते हैं। कर्जा लेकर उसे पढाते हैं। क्या इसलिए कि औलाद बुढापे का सहारा बनने के बजाए एक दिन फंदा लगाकर फंसी पर झूलती मिले ? क्या बच्चो की कोई ड्यूटी नहीं हैं ? क्या उनका फर्ज नही है कि वो माँ बाप की तरह हर मुसीबत से लड़ें ? बुजुर्ग हो रहे माँ बाप कि सेवा के लिए अपना जीवन लगा दें ? जैसे उन्होंने बचपन में हर संघर्ष में बच्चो के लिए त्याग किया, उस तरह मुसीबत उठाकर माँ बाप के लिए खुश रहकर सेवा भावः से काम करें ?
लेकिन नही। माँ बाप की मेहनत और त्याग से दिए गए सबक को सीखना तो अपमान है। एक समस्या आई नही कि आत्महत्या का फैंसला कर लिया। एक नोट भी लिख दिया कि मैं अपने घरवालों से बहुत प्यार करता हूँ। सभी ने मेरे लिए बहुत कुछ किया हैं। मैं उन्हें खुशी नही दे पाया। मुझे अफ़सोस रहेगा। मेरी इच्छा है मेरे शरीर के अंगो को दान कर दिया जाए।
क्या केवल इतना लिखने से समाधान हो जाता है ? क्या कभी ये सोचा है कि बूढे हो रहे माँ बाप का सहारा कौन बनेगा ? जब उन्हें जवान बच्चे कीजरुरत है तो कौन जिम्मेदारी संभालेगा ? बूढे हो रहे बाप को कौन सहारा देगा ? कौन बूढी मां के आँचल में सिर रखकर उसे प्यार का वो अहसास दिलाएगा जो उसके मन कि गहराइयों को छू जाए ?
इस देश के नौजवानों को सोचना होगा कि उनकी जिम्मेदारी क्या है ? आत्महत्या समस्या का अंत है या बुजदिल इंसान के कदम के बाद एक परिवार के सामने आने वाले संकटों की शुरुआत ? इस देश में शायद पहले ऐसा नही होता था? यदि ये आधुनिकता कि देन है तो शायद कोई माँ बाप नही चाहेगा कि उसकी औलाद इतना पढ़े कि ऐसे फैसले लेने लायक हो जाए...

Wednesday, February 11, 2009

भला कैसे अलग है भाजपा औरों से....

प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और अनुशासन का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेता अभी तक दिल्ली विधानसभा चुनाव की हार से उबर नही पा रहे हैं। कभी किसी नेता को दोषी बताया जाता है तो कभी कहा जाता है कि युवाओं ने पार्टी का साथ नही दिया। ऐसा तब हो रहा है जब पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी कह चुके हैं कि चुनाव में टिकट वितरण की खामी रही और इसीलिए पार्टी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। एक महीने पहले पार्टी नेतृत्व बदला तो गहन मंथन के स्थान पर हार का नया ही कारण बता दिया गया। प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश कोहली कह रहे हैं कि दिल्ली में दस लाख फर्जी वोटर हैं और उन्होंने पार्टी को हरवा दिया। शहर में कुल वोटरों कि संख्या एक करोड़ छ लाख है। हकीकत में दस लाख फर्जी वोटर हैं तो दिल्ली में हर दसवां आदमी फर्जी है।
पार्टी को चाहिए था कि मंथन करती और हार के सही कारणों को स्वीकार किया जाता। क्योंकि हार को स्वीकार करने में भी बड़प्पन ही नजर आता। कहते हैं जख्म कुरेदने से नासूर बन जाता है। मगर गुटबाजी में जुटे पार्टी नेता इस और ध्यान नही दे रहे। समस्या को नासूर बनाने में जुटे हैं। नही विचार कर रहे कि जमीन से ताल्लुक रखने वाले कार्यकर्ता अब पहले जैसे क्यों नही रहें?
रहे भी क्यों? सत्ता मिलते ही उसकी अपनी पार्टी के नेताओं का मिजाज जो बदल जाता है। काम होते नही और सम्मान भी नही मिलता। जब अफसरों से ही काम करना है तो दूसरी पार्टी के सत्ता में होने पर भी कराया जा सकता है। फ़िर मेहनत करने कि क्या जरुरत है?
अब सवाल ये है कि पार्टी क्यों बूथ लेवल कार्यकर्ता को सम्मान नही देती? क्यों सही लोगो को टिकट नही दिया जाता? क्यों हारने वालों पर दांव लगाया जाता है? क्यों बड़े नेता अपने खास और सेवा करने वालों कमजोर लोगों को टिकट देने के लिए पैरवी करते हैं? जब ऐसा होता रहेगा तो क्या फर्क रह जाता है पार्टी में, जो उसे औरों से अलग कर दे।

Saturday, February 7, 2009

इस देश में रिश्तों पर भारी रहती है राजनीति

जिस देश में रिश्तो और संबंधो को हर बात से महत्तवपूर्ण आंका जाता था वहां अब इनका आधार खत्म होता जा रहा है। कारण भौतिकतावाद भी है और बढ़ती महत्त्वाकांक्षा भी। कारण चाहे कुछ भी रहे, लेकिन चोट तो रिश्तो को ही लग रही है। पिछले दिनों दिल्ली में चुनाव हुए। एक उम्मीदवार की आक्समिक मृत्यु हो गई। समाज और मानसिकता पर हावी राजनीति का दबाव मानें या खत्म होती रिश्तों की अहमियत। फायदे और नुकसान का आंकलन कर उम्मीदवार की पार्टी ने उनकी पत्नी को मैदान में उतार दिया। यहाँ तक भी सब ठीक था, लेकिन देखकर झटका लगा कि कुछ दिन पूर्व मृत्यु को प्राप्त नेताजी की पत्नी ढोल की थाप के साथ लोगो से वोट मांग रही थी।
दूसरी घटना भी कुछ दिन पुरानी है। बीमारी के कारण मृत्यु के शिकार हुए एक लोकप्रिय नेता जी की चर्चा होते ही, लोग सम्मान से उनका नाम लेते हैं। लेकिन राजनीतिक जरुरत मानें या रिश्तों का कम होता सम्मान, यहाँ भी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा ने रिश्तों को हल्का कर दिया। नेताजी का बेटा अपने पिता की असली विरासत सँभालने के स्थान पर उनकी राजनीतिक विरासत पर काबिज होना चाहता है। उनकी अन्तिम क्रिया के बाद की हर रस्म में राजनीतिक ताकत दिखाने की कोशिश की गई।
तीसरा मामला है हरदिल अजीज और विरोधियों में भी लोकप्रिय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ख़राब हुए स्वास्थ का। जिन्दगी और मौत के संघर्ष से जूझ रहे इस महान नेता के अनुयायी उनके बेहतर स्वास्थ्य की कामना में हवन और यज्ञ करा रहे हैं। लेकिन हवन आदि खत्म होने से पहले पहुँच जाते हैं, समाचार पत्रों के दफ्तर में फोटो के साथ। ताकि अगले दिन अख़बार में छपी फोटो और ख़बर के साथ, सभी को बता सकें कि कितने समर्पित हैं देश और अपनी पार्टी के लोकप्रिय नायक के प्रति।

Tuesday, February 3, 2009

..............धन्य हैं मुख्य सूचना आयुक्त साहब

एक पुरानी कहावत है कि शीशे के घरों में रहने वाले लोग दूसरों पर पत्थर नहीं फैंकते। लेकिन मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह शायद इससे इत्तेफाक नहीं रखते। बात करते हैं पारदर्शिता, ईमानदारी और ऐसे माहौल की, जिसमे सरकार या प्रशासन से जुड़े हर शख्स और उसकी अर्जित संपत्ति के बारे में किसी को भी पूरी जानकारी मिल सके। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने और केन्द्र सरकार के मंत्रियों की संपत्ति की जानकारी मांगने का मामला सामने आया तो केंद्रीय सूचना आयोग के रुख ने देश की जनता को एक सकारात्मक संदेश दिया। एक अपील में आयोग की तीन सदस्यीय बेंच ने फ़ैसला दिया की सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए। फ़ैसला देने वालों में हबीबुल्लाह साहब भी शामिल थे। यही बात सूचना आयोग के आयुक्तों की संपत्ति के बारे में उठी तो, सूचना आयोग में आयुक्त श्रीमान शैलेश गाँधी इस पक्ष में थे कि आयुक्तों की संपत्ति की जानकारी वेब साईट पर डाल दी जाए। लेकिन हबीबुल्लाह साहब जानकारी देने से कतराने वाले अफसरों और जनता से जानकारी छिपाने का भरसक प्रयास करने वाली सरकार की भाषा बोलनजर आए। उनका कहना था, जब देश का कोई भी आयोग अपने आयुक्तों की संपत्ति का ब्यौरा नहीं दे रहा है तो हम भी उन्ही की राह पर चलेंगे। ये मौका था सूचना छिपाने वाले लोगो के सामने एक उदहारण पेश करने का। लेकिन इस बेहतर मौके पर उन्हें अपनी पुरानी नौकरशाही की भाषा याद आ गई। धन्य हैं हमारे देश का सूचना आयोग और उसके मुख्य सूचना आयुक्त।