Monday, June 21, 2010

फिर गिरेगी कमजोर कंधो पर बोझ ढो रही भाजपा


भाजपा अपने घर में बैठे आस्तीन के साँपों के आलावा साथ देने का दम भर रहे भितरघातियों को ढो रही है। बिहार में सत्ता का सुख लेने के लिए भाजपा का दामन थामने वाले नीतिश कुमार जैसे नेता कमजोर कन्धों वाली भाजपा की ताक़त और औकात को बेहतर तरीके से समझते हैं। साढ़े चार साल सत्ता का आनंद लेने के बाद चुनाव नजदीक आता देख संत पुरुष बनने का दम भरने वाले नितिश ने वोट बैंक साधने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से पल्ला झाड़ने का ड्रामा किया। कभी मोदी के साथ रैली में गलबहियां करते हुए मुस्कराकर तस्वीर खिंचवाने वाले नीतिश को उसी तस्वीर के पोस्टर अख़बारों में छपने पर गुस्सा आ रहा है। उन्होंने इस नाटकीय गुस्से को जाहिर करने के लिए गुजरात से बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए मिला पांच करोड़ रूपए वापस कर दिया। ताकि कुछ लोगो में उनकी छवि बेहतर बन सके। सवाल ये है कि नितीश ने किस हैसियत से गुजरात का पैसा वापस करने का फैसला लिया। क्या बिहार सरकार का खजाना उनका पुश्तैनी है। वो भूल गए है कि लोकतंत्र में उनकी जिम्मेदारी केवल इस पैसे के बेहतर और इमानदार प्रबंधक की ही है। न कि खजाने के मालिक की। लेकिन इस पूरे प्रकरण में सत्ता के इस खेल के लिए सियासी नाटक रचने वाले नितिश नही बल्कि कमजोर साबित हो रहा भाजपा नेतृत्व जिम्मेदार है। फुंके हुए कारतूसो को राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी सौंपकर आलाकमान पहले ही बता चुका है कि उसका काम करने का अंदाज क्या रहने वाला है। अब भला जो पार्टी खुद गर्त में जाने को तैयार हो उस कमजोर पार्टी के झुके हुए कन्धों को भला कौन सम्मान देगा। ऐसा तो कोई सियासी बेवकूफ ही कर सकता है और नितिश कम से कम ऐसे बेवकूफों की कतार में तो कतई शामिल नहीं होने वाले। मानों या न मानों, लेकिन ऐसा ही है ये देश मेरा...

Sunday, June 13, 2010

ये ही है दर्द और ख़ुशी की हकीकत


बीते सप्ताह की बात है। मेरे घर ७-८ साल से इलेक्ट्रिसिटी का काम करने वाला एक लड़का कई रोज से चक्कर लगा रहा था। कई बार मुझे उससे चिढ होने लगती है। इस बार उसना बताया कि उसकी मोटरसाइकिल दो दिन पहले पुलिस वालों ने पकड़ ली है। क्योंकि उसके कागज़ घर में सफेदी करते समय कहीं खो गए थे। पहले तो मैंने कहा कि कागज़ बिना मिले कुछ मदद नहीं हो सकती। लेकिन इतना सुनते ही उसका चेहरा उतार गया और वो चला गया। अगले रोज फिर मेरे घर में बिजली सही करने आया तो बिलकुल गुमशुम था। मुझे लगा इसकी मदद करनी चाहिए और मैंने ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट से डुप्लीकेट कागज़ निकलवाने का तरीका बताकर किसी बन्दे के पास भेज दिया। उसकी किस्मत से उसका काम भी हो गया। लड़का बहुत खुश था। कागज़ लेकर थाने गया तो यहाँ मिले साहब ने दो सौ रूपये की मांग कर डाली। परेशान लड़का उदास हो गया। दो दिन थाने के चक्कर लगता रहा और जब काम नहीं बना तो फिर डरता हुआ मेरे पास आया। मैंने वहां किसी शख्स से बात की। उसने लड़के की मोटर साइकिल छुडवा दी। वो बहुत खुश था। इतनी ख़ुशी शायद पहली बार मैंने उसके चेहरे पर देखि थी। और पहली बार लगा कि खुश तो कई बार मई भी होता हूँ, लेकिन उसके चेहरे पर जो ख़ुशी थी वो अहसास शायद ही कभी हुआ होगा। सोचने बैठा तो मन में आया ख़ुशी के भी कई रूप हैं। जब किसी कारण आत्मा पर चोट लगती है तो इलाज़ के बाद सुकून भी उतना ही होता है।

किसके लिए है सरकार और देश का कानून?


भोपाल में १९८४ के गैस हादसे में २५ हजार लोगो की जान चली गयी। जिस यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में गैस रिसने से ये हादसा हुआ १९८२ में उसकी जांच के समय कई गड़बड़ियाँ सामने आई थी। लेकिन सरकार और कंपनी ने उन पर धयान नहीं दिया। क्योंकि सत्ता में बैठे लोग देश पर राज कर चुके गोरो के तलवे चाटने की मानसिकता से बहार नहीं निकल सके थे। हजारों लोगो की जान लेने के लिए जिम्मेदार कंपनी मालिक वारेन एंडरसेन भोपाल में पोलिसे के हत्थे चढ़ा तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने सरकारी पैसे से न केवल उसकी जमानत कराइ बल्कि सरकारी विमान से नई दिल्ली भी भिजवा दिया। आरोप लग रहे हैं कि अर्जुन सिंह के चुरहट ट्रस्ट को इस ईमानदारी भरे कारनामे को अंजाम देने की एवज में तीन करोड़ रूपए डोनेशन मिली थी। कहानी का असली पेंच अदालत में लगाया गया। अदालत ने गैर इरादतन हत्या के आरोप को लापरवाही से मौत की ऐसी धारा में बदल दिया, जिसका कोई खास मतलब ही नहीं है। जब १९८२ में फैक्ट्री की जांच के दौरान सुरक्षा समबन्धि कमियों का खुलासा हो चुका था तो उन पर ध्यान नहीं देने वाले लोगो को अदालत से ऐसी छुट मिलने का क्या मतलब है? अब केंद्र सरकार के कानून मंत्री न्यायपालिका को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं तो राज खुलने पर केंद्र और राज्य सरकार के तत्कालीन हुकुमरानो के असली चेहरों से पर्दा उठ रहा है। लेकिन हकीक़त ये भी है की अख़बारों और चैनलों की सुर्ख़ियों में शामिल भोपाल हादसा शायद अगले ही सप्ताह तक किसी दूसरी बड़ी खबर के आगे बहुत छोटा होकर रह जायेगा। २६ साल में न्याय के नाम पर हुआ मजाक कुछ दिनों के शौरगुल के बाद ख़ामोशी की चादर ओढ़ लेगा। मरने वालों की बेकदरी पहले ही हो चुकी है, दूसरी पीढी की जिन्दगी में गमों ने स्थाई जगह बना ली है। नेता कल भी मौज में थे और भविष्य में भी उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। जितना शोर मचाना है मचाओ। कोई नहीं सुनेगा। हर कोई जानता है कि इस देश में शोर कैसे दबाया जाता है। या खुद ही कैसे दब जाता है। क्योंकि ऐसा ही है ये देश मेरा।

Sunday, May 30, 2010

नक्सालियों से दहशतजदा सरकार


नक्सलवाद ने एक बार फिर बेक़सूर लोगो की जान ले ली। पश्चिम बंगाल में हुए ट्रेन हादसे में डेढ़ सौ लोगो को अपनी जान गवानी पड़ी। रेल मंत्री कहती हैं ये हादसा नक्सालियों की देन है और देश के गृहमंत्री कह रहे हैं ऐसे कोई तथ्य सामने नहीं आये हैं की हादसा नक्सालियों की देन है। लेकिन ट्रेन में मौजूद करमचारियों ने अपने बयां में हादसे के लिए बेरहम और आतंकवाद की राह पर चल रहे देशद्रोही नक्सालियों को आरोपी ठहराया है। कमजोरी और राजनीतिक कारणों से सरकार की चुप्पी से वाकिफ नक्सालियों ने दांतेवाडा के बाद कई नरसंहार करते हुए फिर से सरकार को उसकी और अपनी औकात बता दी है। धोखे से वार कर बेकसूरों की जान लेने वाले कायर और देशद्रोही नक्सालियों को ठिकाने लगाने के बजाये सरकार अभी तक कोई रणनीति ही तय नहीं कर पाई है। देश की राजधानी में नक्सल समर्थक जेएनयू जैसे विश्वविधालय में केंद्र सरकार की नाक के नीचे जवानों की मौत पर जश्न मानते हैं। पुलिस शिकायत मिलने पर भी रिपोर्ट दर्ज नहीं करती। भले ही ड्यूटी पर बरहमी से उनकी ही जैसे जवानों की कायरता से हत्या क्यों न कर दी गयी हो। देश की मजबूत बताने वाली सरकार देशद्रोहियों का समर्थन करने वाले गद्दारों के खिलाफ करवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। पश्चिम बंगाल के हादसे के बाद ठोस करवाई करने के बजाये रेल मंत्रालय में नक्सल प्रभावित इलाकों में रात में रेलों कि आवाजाही नहीं करने का फैसला किया जा रहा है। ताकि जान माल के नुक्सान को रोका जा सके। जिन कायरों को जूतों तले कुचल देना चाहिए था उनकी दहशत में रात को ट्रेन नहीं चलने का फैसला सरकार की मजबूती (?) कर रहा है लेकिन फिर भी आवाम चुप है। क्योंकि यहाँ वो जिन्दा दिल लोग रहते हैं जो हादसों की परवाह नहीं करते। कितना भी बड़ा भूचाल आ जाये या लोगो की जान चली जाये, लोग अगले ही दिन फिर से अपने काम में जुट जाते हैं। लेकिन फिर भी सा गर्व से खड़े रहते हैं। क्योकि हम हर हाल में यही दोहराते नज़र आते है कि ये देश है मेरा

Friday, May 21, 2010

बेईमानों की दुनिया

जब कभी समाचार पत्र या टीवी पर धोकाधडी या अपनों के विश्वास का खून करने की घटनाओं के बारे में पढता या देखता था तो मन में ख्याल आता था कि कोई भी इंसान कैसे किसी का विश्वास तोड़ सकता है। लेकिन कहते हैं कि इस दुनिया में हर बात का जवाब यहीं मिल जाता है। ये सच भी है। कल तक पैसे का रोना रोकर मदद मांगने वाला इंसान थोड़ी ही कामयाबी मिलने के बाद कैसे आँखे बदलता है, एक घटना के बाद अब मुझे भी समझ आ गया। लेकिन अभी भी यकीं नहीं होता कि खुद को आपका हितेषी बताने वाला इंसान कैसे आपकी पीठ में छुरा घोपने से बाज नहीं आता। वो भी केवल इसलिए कि उसे पैसा ज्यादा प्यारा लगने लगता है, और इसलिए वो अपने वायदे और बातें भी भूल जाता है। खैर जवाब इसी जमीं पर मिलता है तो धोका करने वालों को परिणाम भी इसी जमीं पर मिल जाते हैं। बस फरक इतना है कि धोखा खाने वाला किसी पर यकीं नहीं कर पता और देने वाला अपनी मीठी बातों के साथ किसी और को ठगने कि योजना का ताना बना बुनता रहता है। बस ऐसा ही है देश मेरा......

Sunday, May 16, 2010

मंत्री जी को पड़ गए लेने के देने


दिल्ली सरकार में समाज कल्याण मंत्री की कुर्सी पर विराजमान माननीय मंगतराम सिंघल जी हाल ही में एक पंचसितारा होटल में गए थे। मुंबई के ताज होटल में आतंकी हमले के बाद तमाम होटलों की सिक्यूरिटी बढ़ी हुई है। मंत्री जी होटल में जाने लगे तो गेट पर ही उनकी कर की रोक लिया गया। कहा गया की सुरक्षा कारणों से कार की तलाशी लेना जरुरी है। अब मंत्रीदिल्ली में अलग ही हनक रखने के लिए जाने जाते हैं। भलाये ही कैसे बर्दाशत करते की मंत्री की कर की तलाशी ली जाये। क्योंकि उनकी नजर में मंत्री तो हर कानून से ऊपर होते हैं। उन्हें कहीं भी रोककर तलाशी लेने जैसा अपमानजनक काम किया जाये ये तो किसी भी सूरत में काबिले बर्दाशत नहीं हो सकता। बस फिर क्या था मंत्री जी का परा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। समाज कल्याण के साथ मंत्री जी के पास लेबर डिपार्टमेंट भी है। उन्होंने अपने रुतबे और पॉवर का पर्योग किया और होटल में छपे मरने का फरमान जारी कर दिया। ये बात और है की दिल्ली में कहीं भी लेबर कानून का मजाक उड़ने पर डिपार्टमेंट के लोग कुछ नहीं करते हों या फिर बड़े लोगो की मलाई खाकर होठों पर जीब फेरते रहते हों, लेकिन मंत्री जी का फरमान किलते ही पूरा महकमा तमाम काम छोड़कर होटल में छपे मरने निकल पड़ा। कुछ ही देर में तमाम टीम होटल में थी और होटल के दस्तावेजों की जांच शुरू कर दी गयी। लेकिन मंत्री जी भूल गए कि जिस होटल को निशाना बनाया जा रहा है वो सड़क के किनारे चल रहा ढाबा नहीं पांचसितारा होटल है। यहाँ वो लोग भी फुर्सत के क्षणों में आते हैं, जिनके दरबार में मंत्री जैसे न जाने कितने नेता एक टांग पर खड़े रहते हैं। बस फिर क्या था होटल कि और से उन लीगों तक एक सन्देश पहुँचाया गया और मंत्री जी को लेने के देने पद गए। अब मंत्री जी चुप्पी साधे हुए हैं और सरकार होटल मनेजमेंट से माफ़ी मांग रही है। पता तो ये भी लगा है कि मंत्री जी बीते साल नवम्बर में भी एक पांच सितारा होटल में ऐसा ही कारनामा कर चुके हैं। तब ताज होटल में छापे डलवाए गए थे। लेकिन वो मामला जनता की नजर में नहीं आ सका तो मंत्री जी ने फिर वही कारनामा दोहराने की गलती कर डाली। खैर इस देश में शेर पर सवा शेर पड़ते देर नहीं लगती। क्योंकि कुछ ऐसा ही है देश मेरा.....

खाप पंचायतों में ख़ून से वोट बैंक भरने की राजनीति

आजकल देश में खाप पंचायतें चर्चा का केंद्र बनी हुई हैं। पुरानी परम्परा और संस्कृति के नाम पर शुरू ये पंचायतें जब कभी चर्चा में आती थी तो मुद्दे सामाजिक विकास और हक की लड़ाई से जुड़े होते थे। लेकिन समय के साथ हर चीज बदल रही है तो पंचायतों के विषय भी बदलने लगे हैं। पुरानी कहावत है की मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी। लेकिन खाप पंचायतों के काजी कुछ भी करने को तैयार हैं। यहाँ तक की अपना फरमान नहीं मारने वालों की जान लेने तक से भी उन्हें परहेज नहीं है। हवाला दिया जाता है विरासत को सहेजकर रखने का और पुरानी परम्परा को बचने की लड़ाई का। खैर विषय बहुत गंभीर है। मुद्दे और फैंसले दोनों ग़लत हो सकते हैं। लेकिन पिछले कुछ दिनों में मीडिया में ख़बरें चली कि कांग्रेस संसद नवीन जिंदल ने खाप पंचायतों का समर्थन किया है। ये वो ही नवीन जिंदल हैं, जिन्हें राहुल गाँधी कि सोच कि उपज मन जाता है। सोच ये कि पढ़े लिखे नौजवान राजनीति में आयेंगे तो देश का विकास तो होगा ही पुरानी रवायतें भी बदलेंगी। शायद नवीन जिंदल का खाप पंच्यातों को दिया गया समर्थन तो राहुल गाँधी कि सोच पर खरा नहीं उतर रहा है। क्या ऐसा ही है देश मेरा.......

Tuesday, April 27, 2010

शोएब मालिक का सच

सुना है सानिया मिर्जा से निकाह करने के बाद पकिस्तान में दावत-अ- वलीमा में जुटने वाले अखबार नवीसों से कार्यक्रम की कवरेज के लिए पकिस्तान के क्रिकेट खिलाडी शोएब मालिक ने साढ़े तीन करोड़ रूपये की मांग की है। कमाल है अपनी खुबसूरत बीवी और एक मुल्क में शान बनी लड़की के साथ पाक बंधन में बंधने के बाद शोएब जैसा "इंसान" लोगो के प्यार और उत्सुकता की जानकारी बांटने के लिए भी पैसा मांग रहा है। शर्म आती है अपने आप को सेलेब्रिटी कहलाने का दावा करने वाले ऐसे बेशरम लोगो पर जो एक मुल्क में अपनी अलग शख्सियत होने के दम पर किसी दुसरे मुल्क की लड़की से शादी करके अपने मुल्क जाकर ऐसी घिनौनी मांग करते हैं। देखा तो नहीं है। लेकिन ऐसे ही वाकियों को सुनने का बाद लगता है की पकिस्तान के लोगो पर यकीं करना ठीक नहीं है। क्योंकि जो लोग अपनी हमसफ़र के बारे में सम्मान से जानने वाले लोंगो की भावनाओं के लिए भी पैसा मांग सकते हैं वो लोग कम से कम मेरे देश के गैरतमंद लोगो के पाँव की धूल भी नहीं हो सकते। क्योंकि मेरे देश में हमसफ़र को दिल से लगा कर रखा जाता है। उसका सम्मान करने वालों की सम्मान से एक झलक पाने की ख्वाहिश के लिए पैसा नहीं माँगा जाता है। फक्र है मुझे अपने देश और उसकी आवाम पर। क्योंकि ये देश है तो सिर्फ मेरा।

Monday, April 26, 2010

फिर बदली गडकरी की जुबान!

भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने एक अपने एक बयान में कहा है कि १९८४ में हुए सिख विरोधी दंगो के लिए कांग्रेस को जिमेद्दार ठहराना ठीक नहीं हैं। क्योंकि वो दंगे एक हत्याकांड के बाद हुए थे और वो लोगो की अपनी भावनाओ के कारण हुए थे। हो सकता है के कुछ लोग किसी पार्टी विशेष से जुड़े हुए हों। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि कांग्रेस इसके लिए जिम्मेदार है। उन्होंने ये बात गुजरात के दंगो के लिए वहां के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को जिम्मेदार न मानने के सम्बन्ध में तर्क रखते हुए कही थी। सवाल ये नहीं है कि गुजरात दंगो के लिए मोदी जिम्मेदार हैं या नहीं। सवाल ये है के १९८४ के जिन दंगो की हकीक़त से पूरा देश वाकिफ है, उन दंगो के लिए गडकरी अपने बचाव में इतिहास को झुठलाने का प्रयास कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का ये बयान लाल कृष्ण अडवानी के उस बयान जैसा ही है जिसमे उन्होंने देश का विभाजन करने के लिए जिम्मेदार मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ की थी। लेकिन एक बहुत बड़ा फर्क है। वो ये कि अडवानी को लोग गंभीरता से लेते हैं और गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी वो सम्मान नहीं मिल सका है। लेकिन गडकरी को ये ध्यान रखने की जरुरत है के देश में सब कुछ इतिहास और संस्कृति की बदौलत चल रहा है। हकीक़त को झुठलाने वाले बयान लोगो को हजम नहीं होते। और हाँ वो ये भी ध्यान रखें की जनता की नज़र में अडवाणी के एक ही बयान ने उनको राजनीतिक बुलंदियों को धरातल पर ला दिया था और गडकरी तो अभी तक बुलंदियां भी नहीं छू पायें हैं। अपना नहीं तो कम से कम भाजपा के रुतबे का तो ख्याल करें "गडकरी जी"। क्योंकि मेरे देश में जनता वोट भले ही किसी को भी दे देती हो लेकिन जख्मों को कुरेदने वाले लोग उसे पसंद नहीं हैं। क्योंकि कुछ ऐसा ही ही है "ये देश मेरा".

Sunday, April 25, 2010

आईपीएल का बुखार और बेखबर ''सरकार''

देश में नौजवानों से लेकर मीडिया तक पर आईपीएल का बुखार चढ़ा हुआ है। क्रिकेट के मैदान में आईपीएल का जुनून पैदा करने वाले ललित मोदी अब खुद इस मामले में खलनायक नज़र आ रहें हैं। ट्विट्टर पर लेख लिखकर देश कि जनता को जानवर कि संज्ञा देने जैसी घटनाओं से चर्चित केंद्रीय मंत्री शशि थरूर भी इसमें फंसे और खुद पर लगे आरोपों के "दाग" से नहीं बच पाए। बहरहाल आईपीएल की खुमारी और ज्यादा बढ़ गयी है। मंत्री जी तो सफाई देते-देते खुद साफ़ हो गए। लेकिन अब उन्ही की तरह मोदी जी कह रहें हैं कि सीट नहीं छोडूंगा। चाहे जो भी हो जाये। इतना ही नहीं धमकी भी दे रहें हैं कि "खेल" "खत्म" हुआ तो हमाम में नंगे रह चुके लोगो का पर्दाफाश कर दूंगा। आखिर वो जानते हैं कि मामले में फंसी हुई किस गर्दन का मौल क्या है। क्योंकि इस महान लोकतंत्र में "गर्दन" नहीं उसकी "मोटाई" देखकर फैसलें होते हैं। यहाँ "रसूख" बहुत मायने रखता है। तभी तो ख़बरें आ रही हैं कि कोई अपने खास खिलाडियों के लिए स्पेशल प्लेन लेकर उड़ गया, क्योंकि उनके पापा उड्डयन मंत्री थे। मैदान में सट्टेबाजी से बदनाम हुआ क्रिकेट इसी बदनामी के कारन अब सत्ता के गलियारों और धनाढ्य लोगो का शौक बन गया है। आप खुद देखिये क्रिकेट संघ के एक पदाधिकारी कोई और नहीं देश के कृषि मंत्री हैं। ये वो मंत्रालय है जिसका जिम्मा लोगो को सस्ता अनाज और खाने की चीजें मुहैयाँ करना हैं। लेकिन उनका मंत्रालय अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रहा है। और जनता के रहमोकरम पर चुने गए नेताजी महंगाई कम करने नहीं बल्कि क्रिकेट के "खेल" को "सफाई" से करने पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। अब तो इस करोडो के खेल में उनकी संसद बेटी के पति को भी फायदा मिलने जानकारियां सामने आ रही हैं। देश कि जनता भूखी रही है। लेकिन जिम्मेदार सरकार के होनहार नेता मैदान के खेल को सत्ता के गलियारों से ले जाकर करोड़पतियों की तिजोरी में पहुँचने में जुटे हुए हैं। लेकिन सरकार बेखबर है। हालाँकि हल्ला मच रहा है। लेकिन तब तक, जब तक कि मीडिया को इससे बड़ी कोई घटना या घोटाला नहीं मिल जाता। इतिहास गवाह हैं। हादसें ख़बरों का रुख मोड़ते रहे हैं और घोटालों के दौरान बेशर्मी से मुस्कराकर "कानून" में "विश्वास" जताने वाले लोग आज भी इस "महान लोकतंत्र" में "आज़ादी" से "सुरक्षा" के साथ घूम रहे हैं। ''खेल'' था ''हो'' गया। लोगो को समझना होगा। क्योंकि ऐसा ही है ''ये देश मेरा''

Saturday, January 30, 2010

क्या है किसी जिन्दी का मौल?

आज मै एक घटना को लेकर किसी से चर्चा कर रहा था कि अदालत ने महज १०० रुपए के लिए क़ी गयी एक जवान युवक कि हत्या करने के तरीके को दुर्लभ घटना मानने से इनकार करते हुए, हत्यारों को मौत कि सजा देने इनकार कर दिया। कानूनी तकाजे को जानने के बाद कहा जा सकता है कि हत्या की ये वारदात दुर्लभ घटनाओं कि श्रेणी में नहीं आती। लेकिन एक प्रश्न भी मन में आ रहा है कि क्या जीवन का कोई मौल हो सकता है? पिछले दिनों मेरे एक परिचित युवक की मौत हो गयी। युवक घर में अकेला रहता था। दो दिन बाद किसी ने घर नहीं खुलने पर ध्यान दिया और पुलिस को बुलाया तो मौत कि जानकारी मिली। सभी परिचितों ने अफ़सोस जताया और दो दिन बाद किसी ने इस मौत का जिक्र भी नहीं किया। लेकिन दो महीने बाद एक परिचित युवक की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। उसकी कुछ माह पहले ही शादी हुई थी। एक महीने तक जानकार घटना का जिक्र करके अफ़सोस जताते रहे। अब तो उसके घर में भी घटना को लोग भूलने लगे हैं। लेकिन तीन माह पहले एक और युवक दुर्घटना के कारण मौत का शिकार बन गया था। उसके घर में बूढ़े माँ-बाप हैं। मरने वाला युवक दोनों के बुढ़ापे का सहारा था। युवक तो जीवन की दौड़ में मौत से हार गया, लेकिन उसके माँ-बाप आज भी हर रोज हर क्षण उसे याद करके आंसू बहाते हैं। क्योंकि अब उनका जीवन बहुत संघर्ष में बीत रहा है। तीनो घटनाओं का आंकलन करके मन में ख्याल आता है कि मौत तो तीनो ही घटनाओं में हुई है। फिर किसके जीवन का क्या मौल है? क्या सांसारिक जरूरतें ही किसी इंसान के जीवन का मौल तय करती हैं? मैंने तो सुना था कि जीवन का कोई मौल नहीं है।