Monday, June 21, 2010

फिर गिरेगी कमजोर कंधो पर बोझ ढो रही भाजपा


भाजपा अपने घर में बैठे आस्तीन के साँपों के आलावा साथ देने का दम भर रहे भितरघातियों को ढो रही है। बिहार में सत्ता का सुख लेने के लिए भाजपा का दामन थामने वाले नीतिश कुमार जैसे नेता कमजोर कन्धों वाली भाजपा की ताक़त और औकात को बेहतर तरीके से समझते हैं। साढ़े चार साल सत्ता का आनंद लेने के बाद चुनाव नजदीक आता देख संत पुरुष बनने का दम भरने वाले नितिश ने वोट बैंक साधने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से पल्ला झाड़ने का ड्रामा किया। कभी मोदी के साथ रैली में गलबहियां करते हुए मुस्कराकर तस्वीर खिंचवाने वाले नीतिश को उसी तस्वीर के पोस्टर अख़बारों में छपने पर गुस्सा आ रहा है। उन्होंने इस नाटकीय गुस्से को जाहिर करने के लिए गुजरात से बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए मिला पांच करोड़ रूपए वापस कर दिया। ताकि कुछ लोगो में उनकी छवि बेहतर बन सके। सवाल ये है कि नितीश ने किस हैसियत से गुजरात का पैसा वापस करने का फैसला लिया। क्या बिहार सरकार का खजाना उनका पुश्तैनी है। वो भूल गए है कि लोकतंत्र में उनकी जिम्मेदारी केवल इस पैसे के बेहतर और इमानदार प्रबंधक की ही है। न कि खजाने के मालिक की। लेकिन इस पूरे प्रकरण में सत्ता के इस खेल के लिए सियासी नाटक रचने वाले नितिश नही बल्कि कमजोर साबित हो रहा भाजपा नेतृत्व जिम्मेदार है। फुंके हुए कारतूसो को राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी सौंपकर आलाकमान पहले ही बता चुका है कि उसका काम करने का अंदाज क्या रहने वाला है। अब भला जो पार्टी खुद गर्त में जाने को तैयार हो उस कमजोर पार्टी के झुके हुए कन्धों को भला कौन सम्मान देगा। ऐसा तो कोई सियासी बेवकूफ ही कर सकता है और नितिश कम से कम ऐसे बेवकूफों की कतार में तो कतई शामिल नहीं होने वाले। मानों या न मानों, लेकिन ऐसा ही है ये देश मेरा...

Sunday, June 13, 2010

ये ही है दर्द और ख़ुशी की हकीकत


बीते सप्ताह की बात है। मेरे घर ७-८ साल से इलेक्ट्रिसिटी का काम करने वाला एक लड़का कई रोज से चक्कर लगा रहा था। कई बार मुझे उससे चिढ होने लगती है। इस बार उसना बताया कि उसकी मोटरसाइकिल दो दिन पहले पुलिस वालों ने पकड़ ली है। क्योंकि उसके कागज़ घर में सफेदी करते समय कहीं खो गए थे। पहले तो मैंने कहा कि कागज़ बिना मिले कुछ मदद नहीं हो सकती। लेकिन इतना सुनते ही उसका चेहरा उतार गया और वो चला गया। अगले रोज फिर मेरे घर में बिजली सही करने आया तो बिलकुल गुमशुम था। मुझे लगा इसकी मदद करनी चाहिए और मैंने ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट से डुप्लीकेट कागज़ निकलवाने का तरीका बताकर किसी बन्दे के पास भेज दिया। उसकी किस्मत से उसका काम भी हो गया। लड़का बहुत खुश था। कागज़ लेकर थाने गया तो यहाँ मिले साहब ने दो सौ रूपये की मांग कर डाली। परेशान लड़का उदास हो गया। दो दिन थाने के चक्कर लगता रहा और जब काम नहीं बना तो फिर डरता हुआ मेरे पास आया। मैंने वहां किसी शख्स से बात की। उसने लड़के की मोटर साइकिल छुडवा दी। वो बहुत खुश था। इतनी ख़ुशी शायद पहली बार मैंने उसके चेहरे पर देखि थी। और पहली बार लगा कि खुश तो कई बार मई भी होता हूँ, लेकिन उसके चेहरे पर जो ख़ुशी थी वो अहसास शायद ही कभी हुआ होगा। सोचने बैठा तो मन में आया ख़ुशी के भी कई रूप हैं। जब किसी कारण आत्मा पर चोट लगती है तो इलाज़ के बाद सुकून भी उतना ही होता है।

किसके लिए है सरकार और देश का कानून?


भोपाल में १९८४ के गैस हादसे में २५ हजार लोगो की जान चली गयी। जिस यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में गैस रिसने से ये हादसा हुआ १९८२ में उसकी जांच के समय कई गड़बड़ियाँ सामने आई थी। लेकिन सरकार और कंपनी ने उन पर धयान नहीं दिया। क्योंकि सत्ता में बैठे लोग देश पर राज कर चुके गोरो के तलवे चाटने की मानसिकता से बहार नहीं निकल सके थे। हजारों लोगो की जान लेने के लिए जिम्मेदार कंपनी मालिक वारेन एंडरसेन भोपाल में पोलिसे के हत्थे चढ़ा तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने सरकारी पैसे से न केवल उसकी जमानत कराइ बल्कि सरकारी विमान से नई दिल्ली भी भिजवा दिया। आरोप लग रहे हैं कि अर्जुन सिंह के चुरहट ट्रस्ट को इस ईमानदारी भरे कारनामे को अंजाम देने की एवज में तीन करोड़ रूपए डोनेशन मिली थी। कहानी का असली पेंच अदालत में लगाया गया। अदालत ने गैर इरादतन हत्या के आरोप को लापरवाही से मौत की ऐसी धारा में बदल दिया, जिसका कोई खास मतलब ही नहीं है। जब १९८२ में फैक्ट्री की जांच के दौरान सुरक्षा समबन्धि कमियों का खुलासा हो चुका था तो उन पर ध्यान नहीं देने वाले लोगो को अदालत से ऐसी छुट मिलने का क्या मतलब है? अब केंद्र सरकार के कानून मंत्री न्यायपालिका को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं तो राज खुलने पर केंद्र और राज्य सरकार के तत्कालीन हुकुमरानो के असली चेहरों से पर्दा उठ रहा है। लेकिन हकीक़त ये भी है की अख़बारों और चैनलों की सुर्ख़ियों में शामिल भोपाल हादसा शायद अगले ही सप्ताह तक किसी दूसरी बड़ी खबर के आगे बहुत छोटा होकर रह जायेगा। २६ साल में न्याय के नाम पर हुआ मजाक कुछ दिनों के शौरगुल के बाद ख़ामोशी की चादर ओढ़ लेगा। मरने वालों की बेकदरी पहले ही हो चुकी है, दूसरी पीढी की जिन्दगी में गमों ने स्थाई जगह बना ली है। नेता कल भी मौज में थे और भविष्य में भी उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। जितना शोर मचाना है मचाओ। कोई नहीं सुनेगा। हर कोई जानता है कि इस देश में शोर कैसे दबाया जाता है। या खुद ही कैसे दब जाता है। क्योंकि ऐसा ही है ये देश मेरा।