Sunday, June 13, 2010

किसके लिए है सरकार और देश का कानून?


भोपाल में १९८४ के गैस हादसे में २५ हजार लोगो की जान चली गयी। जिस यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में गैस रिसने से ये हादसा हुआ १९८२ में उसकी जांच के समय कई गड़बड़ियाँ सामने आई थी। लेकिन सरकार और कंपनी ने उन पर धयान नहीं दिया। क्योंकि सत्ता में बैठे लोग देश पर राज कर चुके गोरो के तलवे चाटने की मानसिकता से बहार नहीं निकल सके थे। हजारों लोगो की जान लेने के लिए जिम्मेदार कंपनी मालिक वारेन एंडरसेन भोपाल में पोलिसे के हत्थे चढ़ा तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने सरकारी पैसे से न केवल उसकी जमानत कराइ बल्कि सरकारी विमान से नई दिल्ली भी भिजवा दिया। आरोप लग रहे हैं कि अर्जुन सिंह के चुरहट ट्रस्ट को इस ईमानदारी भरे कारनामे को अंजाम देने की एवज में तीन करोड़ रूपए डोनेशन मिली थी। कहानी का असली पेंच अदालत में लगाया गया। अदालत ने गैर इरादतन हत्या के आरोप को लापरवाही से मौत की ऐसी धारा में बदल दिया, जिसका कोई खास मतलब ही नहीं है। जब १९८२ में फैक्ट्री की जांच के दौरान सुरक्षा समबन्धि कमियों का खुलासा हो चुका था तो उन पर ध्यान नहीं देने वाले लोगो को अदालत से ऐसी छुट मिलने का क्या मतलब है? अब केंद्र सरकार के कानून मंत्री न्यायपालिका को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं तो राज खुलने पर केंद्र और राज्य सरकार के तत्कालीन हुकुमरानो के असली चेहरों से पर्दा उठ रहा है। लेकिन हकीक़त ये भी है की अख़बारों और चैनलों की सुर्ख़ियों में शामिल भोपाल हादसा शायद अगले ही सप्ताह तक किसी दूसरी बड़ी खबर के आगे बहुत छोटा होकर रह जायेगा। २६ साल में न्याय के नाम पर हुआ मजाक कुछ दिनों के शौरगुल के बाद ख़ामोशी की चादर ओढ़ लेगा। मरने वालों की बेकदरी पहले ही हो चुकी है, दूसरी पीढी की जिन्दगी में गमों ने स्थाई जगह बना ली है। नेता कल भी मौज में थे और भविष्य में भी उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। जितना शोर मचाना है मचाओ। कोई नहीं सुनेगा। हर कोई जानता है कि इस देश में शोर कैसे दबाया जाता है। या खुद ही कैसे दब जाता है। क्योंकि ऐसा ही है ये देश मेरा।

No comments:

Post a Comment