Saturday, September 26, 2009

विचारों की उथल-पुथल और जिन्दगी की मंजिल

अभी थोड़ा समय मिला तो मन में विचार आया की इंसान खाली समय में क्या सोचता रहता है? मैं तो जब भी वक्त मिलता है, अतीत में चला जाता हूँ। हालाँकि कहते हैं अतीत में झाँकने से कुछ नही मिलता। लेकिन ये भी सुना है कि पुराने दौर को याद रखना चाहिए। क्योंकि वो आपके जीवन को दिशा देने में मदद करता है। बताता है कि जिन्दगी की हकीक़त क्या थी? खैर कई बार विचारों के रथ पर सवार हुआ तो पता नही किस दिशा में पहुँच जाता हूँ। या यूँ कहूँ ख्याल क्या होता है और मन में क्या आ जाता है। सोच रहा था कॉलेज के दिनों के बारे में और उन हरकतों के बारे में जिनका ख्याल आते ही चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है और अचानक उस दौर के बारे में जब जीवन कि दिशा यानि राह तय करने का समय आया तो अजीब सी कशमकश चलने लगी थी। लेकिन अचानक से जिन्दगी को ख़ुद बा ख़ुद दिशा मिल गई। फ़िर एक मुश्किल भरा दौर आया। रास्ता ही धुंधला सा नजर आने लगा था। लेकिन अपनों ने तब भी संभाल लिया। मगर जीवन है और सब कुछ तो कभी भी बेहतर नही हो पाता। जीवन में एक मोड़ आया और इस बार फैंसला करना कठिन लगने लगा। क्योंकि दिल और दिमाग ही नही दिल भी दो दिशाओं में चल रहा था। दिल और दिमाग कभी कभी एक साथ नही चलते ये तो सुना था। लेकिन यहाँ तो मामला दिल की दो दिशाओं का था। दिल ही दो अलग दिशाओं की और चलना चाह रहा था और ऐसा तो सम्भव नही था। लेकिन इस बार भी फैंसला कर लिया। कठिन था, मगर इरादा बना लिया कि फैंसले पर अटल रहना है। कई साल यही कशमकश चलती रही और इस बार भी किस्मत ने फ़िर से मेरा ही साथ दिया। लग रहा है सब ठीक है। जीवन की एक और जंग में राह तय हो गई है। लेकिन अभी भी ख्याल आता है की क्या मैं उन उम्मीदों पर खरा उतार पाउँगा जो मुझसे हैं? क्या इस बार भी जीवन के संघर्ष में किस्मत मेरा ही साथ देगी। हमेशा की तरह? लेकिन इरादा पक्का है, मंजिल तय की है तो उसी की राह पर चलना भी है। क्योंकि इस बार तो किस्मत ही मेरी हमसफ़र है।

सावधान सरकार खेल (राष्ट्रमंडल) में व्यस्त है.

देश की राजधाने में जनता पीने के पानी के लिए तरस रही है। लोगो को इस मौसम में भी बिजली की किल्लत झेलनी पड़ रही है। सड़को की हालत ऐसी है कि प्रेगनेन्ट महिला को इनसे होकर अस्पताल ले जाने निकलें तो डिलीवरी का खर्चा बच जाए। शहर में यातायात जाम स्थायी समस्या बन गया है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पूरी तरह लचर हो चुका है। बदमाश बेखौफ होकर अपने काम को अंजाम दे रहे हैं।
सरकार कहती है कि दिल्ली में हरयाली बढ़ रही है, लेकिन गर्मी और बढ़ते हुए तापमान से जूझ रहे इंसान को सड़क किनारे सस्ताने के लिए भी छाँव तक नही मिल पाती। अब जनता है कि हर बात के लिए सरकार और अफसरों को जिमेद्दार ठहरा रही है। कहती है समस्या दूर करने में सरकार ध्यान नही दे रही। अब जनता तो जनता है। कुछ भी कह देती है। नही जानती कि सरकार को बहुत काम हैं। बेचारी सरकार के मंत्री और अफसर अपने एसी कमरों में होने वाली मीटिंगों में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बाहर की हकीक़त देख ही नही पाते। अब भला जनता क्या जाने राजकाज की बातें?
जानती नही है कि सरकार कितनी मेहनत करती है? अगले साल दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल होने वालें हैं। विदेशों से बड़ी संख्या में लोग इसमे हिस्सा लेंगे। इसके लिए तैयारियां करनी हैं। जनता तो सरकार की अपनी है। बिना बिजली और पानी के भी रह सकती है। यातायात जाम और गड्ढों वाली सड़को से गुजरने की आदि हो चुकी है। लेकिन बाहर से आने वालों का ख्याल रखना ज्यादा जरुरी है। जनता को ये बात समझनी चाहिए।
इसलिए इस देश, शहर और सरकार की अपनी बेचारी जनता को चेतावनी दी जाती है कि बिजली, पानी, सड़क, यातायात जाम, अपराध, पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम या किसी और समस्या को उठाने की हिमाकत न करे। क्योंकि इससे सरकार का ध्यान भंग हो सकता है और सरकार अपने सबसे महत्वपूर्ण काम यानि खेल करने....ओह....माफ़ करें खेलों कि तैयारी में व्यस्त है।

Thursday, September 24, 2009

किसके लिया और किसके साथ

दिल्ली के अख़बारों में खबरें छप रही हैं कि सीपी साहब के खास डीसीपी साहब ने अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी निकलने के लिए सफदरजंग अस्पताल के एम्एस के ख़िलाफ़ झूठा मुकदमा दर्ज करा दिया। एमएस साहब का कसूर ये था कि उन्होंने डीसीपी साहब के रिश्तेदारको मेडिकल कोर्स में दाखिला नही दिया था। अब शहर में रहना है और डीसीपी साहब के रिश्तेदार को तवज्जो नही मिले, ये तो पुलिस की साख पर बट्टा लगाने वाला काम है न? एमएस साहब ने पुलिस की साख पर बट्टा लगाया था, तो परिणाम भी भुगतना ही पड़ेगा न। कहा तो यह भी जा रहा है कि डीसीपी साहब ने हाल ही में अस्पताल से एचआईवी संक्रमण वाले खून के मामले का खुलासा भी किया था। ये बात और है कि अस्पताल के रिकॉर्ड में वो खून नष्ट किया जा चुका है। लेकिन डीसीपी साहब ने मीडिया में ये भी कह दिया कि पुलिस जांच कर रही है कि ये खून कहीं लोगो को तो नही चढाया गया है? साहब ने तो केवल आशंका ही व्यक्त की और अस्पताल में खून चढवा चुके लोगो के दिलों की धड़कने तेज हो गई हैं। बेचारों को क्या पता था कि अस्पताल में खून चढ़वाने के बाद डीसीपी और डॉक्टर साहब की लडाई में ईलाज के बाद ये दिन भी देखना पड़ेगा। धन्य है दिल्ली की महान पुलिस और उसके डीसीपी साहब। बदमाश खौफ नही खाते तो क्या हुआ? कम से कम आम लोगों को तो पुलिस से डरना ही चाहिए।

Wednesday, September 23, 2009

खजूरी हादसा और सरकार. ये दिल्ली है मेरे यार

देश की राजधानी दिल्ली के स्कूल में हादसा हो गयापांच नन्ही बच्चियों की जान चली गईस्कूल की बच्चियों का आरोप थाकि हादसे का कारण लड़कियों के साथ कि गई छेड़छाड़ थीमुख्यमंत्री से लेकर अन्य नेता तक हाल जानने पहुंचेमृत बच्चियोंके घरवालों को मुआवजे का एलान कर दिया गयासरकार ने जांच कमेटी बैठा दीलेकिन रिपोर्ट आने सा पहले ही डीसीपीएस एस यादव ने कह दिया कि हादसा छेड़छाड़ के कारण नही हुआ थाअब दिल्ली सरकार के राजस्व उपायुक्त टी सी नख नेभी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि हादसा छेड़छाड़ के कारण नही हुआ हैहादसे का कारण स्कूल में छोटी सी जगह पर ज्यादातादाद में बच्चों को ठूंसने के कारण हुआ थाऐसा लगता है रिपोर्ट के नाम पर मृत बच्चों के साथ मजाक किया गया हैशायदउपायुक्त श्री नख साहब दिल्ली के सरकारी स्कूलों की हालत से वाकिफ नही हैंआखिर होंगे भी कैसे एसी कमरे और गाड़ी सेनिकलने का मौका जो नही मिलता बेचारों कोदिल्ली के स्कूलों की हकीक़त देख लें तो शायद मालूम हो जाएगा कि बाछेंकिन मुश्किल हालात में पढ़ रहे हैंआज भी ज्यादातर स्कूलों में क्षमता से ज्यादा बच्चों को ठूंसकर रखा जाता हैस्कूलों किइमारतें खतरनाक हालत में हैंस्कूलों में पीने का पानी नही हैटॉयलेट कि सुविधा नही हैस्कूलों के बहार छुट्टी के समय आवारा लड़कों का हुजूम लगा रहता है और पुलिस तथा प्रशासन इन पर अंकुश लगाने में नाकाम साबित हो रहा है। लेकिन सरकार और पुलिस को इससे कोई सरोकार नही है। भले ही पांच कि जगह पचास मासूम लड़कियां क्यों न अपनी जान दे देन। कम से कम १.७ करोड़ कि आबादी में तो इतनी जानें सरकार के लिए कोई मतलब नही रखती।

कौन कहता है सड़क पर भीख मांगते हैं भिखारी

लोग कहते हैं राजधानी की सड़कों पर भीख मांगने वाले लोग शहरी की छवि पर बट्टा लगा रहे हैं! लेकिन हम पूछते हैं जब सरकार और पुलिस को भिखारी नजर नहीं आ रहे, तो आपको भला भिखारी कहां से नजर आ गए! अरे जनाब! आप जानते भी हैं कि भिखारी किसे कहते हैं? चलिए हम आपको बता देते हैं! भिखारी वास्तव में वह लोग होते हैं जो आर्थिक विवशता व अन्य परेशानी के कारण लोगों के सामने याचक बनकर खाने व अन्य मदद की गुहार लगाते हैं। और अपनी दिल्ली में तो ऐसे लोगों की तलाश करने पर कुछ नहीं मिलने वाला।
हैरान होने की आवश्यकता नहीं है। यहां आपको भिखारी नहीं, बल्कि ऐसे लोग ही नजर आएंगे जो लाल बत्ती पर रूकी हुई आपकी कार के शीशे पर हाथ मारकर पैसे मांगते हैं। आप भले ही उन्हें इंकार कर दें या कार से दूर होने के लिए कहें। मगर क्या मजाल की वह अपने अधिकार के लिए ना लड़े! जब तक बत्ती लाल रहेगी, कार के शीशे को थपथपाते उनके हाथ और कार से चेहरा सटाकर भीतर झांकती उनकी निगाहें हट नहीं सकती। आपको बुरा लगता है तो लगता रहे! उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं है। वह तो अपने कार्यक्षेत्र में अपना काम कर रहे हैं। अब आपको नहीं पसंद आया तो न सही। लेकिन उन्हें भिखारी कहने का अधिकार आपको नहीं है!
सड़क और चौराहों पर भीख मांगने वाले लोग कोई मामूली आदमी नहीं है। वह इस काम के लिए बाकायदा पुलिस और समाज कल्याण विभाग को अपनी कमाई में हिस्सा देते हैं। वह ऐसे प्रोफेसनल व्यापारी लोग हैं जो बाकायदा एक क्षेत्र विशेष में अपने काम को अंजाम देते हैं। जहां पर महिला भिखारी बीमार नजर आने वाले बच्चे को किराए पर लाकर उसके नाम पर आपसे मदद मांगती हैं। जहां फटेहाल और बीमार नजर आ रहे मासूम बच्चों की कमाई में से भी बाकायदा कुछ लोगों को हिस्सा जाता है।
ऐसे में यदि कोई संस्था यह कहे कि भीख मांगना अपराध नहीं होना चाहिए तो भला क्या गलत कह रही है? लोग बेचारे अपनी नशे की आदत से मजबूर होकर आपसे पैसा मांगते हैं। हट्टे-कट्टे हैं, मगर मेहनत करने के बजाए भीख मांगकर पेट भरने में विश्वास रखते हैं। पुरूष, कलाकारों की तरह महिला की वेशभूषा में कला दिखाकर पैसे मांगते हैं और नहीं देने पर अधिकार के साथ आपको अपशब्दों से भी नवाजते हैं। फिर ऐसे लोग भला भिखारी कैसे हो सकते हैं। वह तो यह काम उतने ही अधिकार से करते हैं, जितने अधिकार के साथ आप अपना काम करते हैं। भीख मांगना तो उनका मौलिक अधिकार है।

Monday, September 21, 2009

सच का सामना आएं नेताजी तो क्या हो

चर्चित और विवादित टीवी कार्यक्रम सच का सामना में इस बार एक नेताजी मंच पर बैठे हुए थे। एंकर ने पहला सवाल दागा कि क्या आपको टिकट ईमानदारी और मेहनत के कारण मिला था। पहले ही सवाल को सुन ठंडी हवा फेंक रहे एसी के सामने बैठे नेताजी के माथे पर पसीना नजर आने लगा। नेताजी शायद यह सोच रहे थे कि जवाब देते ही उनका तिया-पांचा होना तय हैं। सच बोला तो जनता जूते मारेगी और जवाब हां में दिया तो पहली ही बॉल पर बोल्ड होना तय हैं।

दर्शकों में नेताजी के कुछ राजदार भी बैठ हुए थे। उनमें नेताजी के ऐसे चव्वे भी थे जिन्हें नेताजी विपरित परिस्थितियों से निपटने के लिए खास मित्र बताकर साथ लाए थे। उनमें से एक चव्वा सामने लगा बजर बजाना ही चाहता था कि नेताजी ने इशारे से इंकार कर दिया। चव्वा परेशान यह नेताजी को क्या हो गया है? खुद ही अपनी फजीहत क्यों कराना चाह रहे हैं? मगर वह नेताजी की राजनीति और हार्ट-अटैक से बहुत ज्यादा वाकिफ नहीं था। वह सोच ही रहा था कि नेताजी ने अचानक से सीने पर हाथ रखा और नेताजी को हाट-अटैक हो गया। बेचारा एंकर भी परेशान। सोचने लगा कि नेताजी के हार्ट-अटैक का कारण उसे मान लिया गया तो घर और स्टूडियो पर पथराव और धरने-प्रदर्शन का दौर शुरू हो जाए।

अभी वह सोच ही रहा था कि डायरेक्टर ने मोबाइल पर फोन कर दिया। बोला कहीं नेताजी भगवान को प्यारे हो गए और मौत के कारणों की जांच के लिए गठित कमेटी के सामने पॉलीग्राफ मशीन ने हार्ट-अटैक का सही कारण बता दिया तो, तुम्हारा तो जो होना है होगा, मैं तो मुफ्त में ही मारा जाऊंगा। नेताजी भी इस पूरे प्रकरण में एक आंख खोलकर नजारा देख और सुन-समझ रहे थे। अब चूंकि पसीना एंकर के माथे पर रहा था तो बेचारे नेताजी को तरस गया और तेज चिल्लाते हुए बोले मुझे रेस्ट रूम में ले चलो।

पहले से ही अपनी हालत पर घबराया एंकर उन्हें कमरे में ले गया और जैसे ही नेताजी को बिस्तर पर लिटाया, उन्हांेने कहा बाकी लोगों को बाहर भेज दो और केवल तुम रूक जाओ। एंकर परेशान कि उसके साथ यह क्या होने जा रहा है। मगर पहले ही घबराया था तो नेताजी की बात मानने के अलावा कोई चारा नजर नहीं आया। जैसे ही उसने सभी लोगों को बाहर निकालकर दरवाजा बंद किया, नेताजी मुस्कराते हुए उठकर चहलकदमी करने लगे। बोले बेटा तुम्हारी उम्र कितनी है? हमें ही फंसाना चाह रहा था? हम इतने घोटाले करते हैं और लाखों लोगों को चुनाव के कुछ ही दिनों में बेवकूफ बनाने का हुनर जानते हैं और तुम हमारे ही उस्ताद बनने के चक्कर में थे। अभी वह कुछ बोल ही पाता कि नेताजी फिर से बोलने लगे, कि हार्ट-अटैक आम इंसान के लिए ही परेशानी का कारण होता है। हमें तो यह जब भी आता है, मदद ही करता है। और हां यह भी बता दे रहे हैं कि हममें हार्ट ही नहीं है तो अटैक कैसे पड़ेगा। एंकर को सब समझ में गया और उसने कान पकड़कर तौबा कर ली कि भविष्य में किसी कार्यक्रम में किसी नेता को नहीं बुलाएगा। दरअसल नेताजी की जगह एंकर खुद ही 'सच का सामना" कर चुका था।