Saturday, February 7, 2009

इस देश में रिश्तों पर भारी रहती है राजनीति

जिस देश में रिश्तो और संबंधो को हर बात से महत्तवपूर्ण आंका जाता था वहां अब इनका आधार खत्म होता जा रहा है। कारण भौतिकतावाद भी है और बढ़ती महत्त्वाकांक्षा भी। कारण चाहे कुछ भी रहे, लेकिन चोट तो रिश्तो को ही लग रही है। पिछले दिनों दिल्ली में चुनाव हुए। एक उम्मीदवार की आक्समिक मृत्यु हो गई। समाज और मानसिकता पर हावी राजनीति का दबाव मानें या खत्म होती रिश्तों की अहमियत। फायदे और नुकसान का आंकलन कर उम्मीदवार की पार्टी ने उनकी पत्नी को मैदान में उतार दिया। यहाँ तक भी सब ठीक था, लेकिन देखकर झटका लगा कि कुछ दिन पूर्व मृत्यु को प्राप्त नेताजी की पत्नी ढोल की थाप के साथ लोगो से वोट मांग रही थी।
दूसरी घटना भी कुछ दिन पुरानी है। बीमारी के कारण मृत्यु के शिकार हुए एक लोकप्रिय नेता जी की चर्चा होते ही, लोग सम्मान से उनका नाम लेते हैं। लेकिन राजनीतिक जरुरत मानें या रिश्तों का कम होता सम्मान, यहाँ भी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा ने रिश्तों को हल्का कर दिया। नेताजी का बेटा अपने पिता की असली विरासत सँभालने के स्थान पर उनकी राजनीतिक विरासत पर काबिज होना चाहता है। उनकी अन्तिम क्रिया के बाद की हर रस्म में राजनीतिक ताकत दिखाने की कोशिश की गई।
तीसरा मामला है हरदिल अजीज और विरोधियों में भी लोकप्रिय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ख़राब हुए स्वास्थ का। जिन्दगी और मौत के संघर्ष से जूझ रहे इस महान नेता के अनुयायी उनके बेहतर स्वास्थ्य की कामना में हवन और यज्ञ करा रहे हैं। लेकिन हवन आदि खत्म होने से पहले पहुँच जाते हैं, समाचार पत्रों के दफ्तर में फोटो के साथ। ताकि अगले दिन अख़बार में छपी फोटो और ख़बर के साथ, सभी को बता सकें कि कितने समर्पित हैं देश और अपनी पार्टी के लोकप्रिय नायक के प्रति।

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