प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और अनुशासन का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेता अभी तक दिल्ली विधानसभा चुनाव की हार से उबर नही पा रहे हैं। कभी किसी नेता को दोषी बताया जाता है तो कभी कहा जाता है कि युवाओं ने पार्टी का साथ नही दिया। ऐसा तब हो रहा है जब पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी कह चुके हैं कि चुनाव में टिकट वितरण की खामी रही और इसीलिए पार्टी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। एक महीने पहले पार्टी नेतृत्व बदला तो गहन मंथन के स्थान पर हार का नया ही कारण बता दिया गया। प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश कोहली कह रहे हैं कि दिल्ली में दस लाख फर्जी वोटर हैं और उन्होंने पार्टी को हरवा दिया। शहर में कुल वोटरों कि संख्या एक करोड़ छ लाख है। हकीकत में दस लाख फर्जी वोटर हैं तो दिल्ली में हर दसवां आदमी फर्जी है।
पार्टी को चाहिए था कि मंथन करती और हार के सही कारणों को स्वीकार किया जाता। क्योंकि हार को स्वीकार करने में भी बड़प्पन ही नजर आता। कहते हैं जख्म कुरेदने से नासूर बन जाता है। मगर गुटबाजी में जुटे पार्टी नेता इस और ध्यान नही दे रहे। समस्या को नासूर बनाने में जुटे हैं। नही विचार कर रहे कि जमीन से ताल्लुक रखने वाले कार्यकर्ता अब पहले जैसे क्यों नही रहें?
रहे भी क्यों? सत्ता मिलते ही उसकी अपनी पार्टी के नेताओं का मिजाज जो बदल जाता है। काम होते नही और सम्मान भी नही मिलता। जब अफसरों से ही काम करना है तो दूसरी पार्टी के सत्ता में होने पर भी कराया जा सकता है। फ़िर मेहनत करने कि क्या जरुरत है?
अब सवाल ये है कि पार्टी क्यों बूथ लेवल कार्यकर्ता को सम्मान नही देती? क्यों सही लोगो को टिकट नही दिया जाता? क्यों हारने वालों पर दांव लगाया जाता है? क्यों बड़े नेता अपने खास और सेवा करने वालों कमजोर लोगों को टिकट देने के लिए पैरवी करते हैं? जब ऐसा होता रहेगा तो क्या फर्क रह जाता है पार्टी में, जो उसे औरों से अलग कर दे।
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